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राजस्थान पत्रिका में छपी यह अमर्यादित टिप्पणी न केवल वर्माजी की कुंठित मानसिकता का परिचायक है बल्कि पत्रिका की संपादन नीति पर भी सवालिया निशान खड़ा करती है।जो लोग यहां तक नहीं जानते कि चारण क्या है?और भाट क्या है?दोनों का अलग अलग कार्य क्षेत्र रहा है और दोनों की समाज में अलग -अलग सम्माननीय स्थिति रही है।पीत पत्रकारिता करने वाले व सामाजिक अलगाव की भाषा बोलकर अपनी रोटी पकाने वाले वर्माजी जैसे लोगों ने न तो आज तक चारण साहित्य ही पढा और न ही इनकी ऐसी कोई पृष्ठभूमि रही है ।ऐसे में इन्हें कैसे पता होगा कि चारण बनाए नहीं जाते बल्कि यह एक नैसर्गिक वैचारिक प्रतिबद्धता का नाम है जिन्होंने विदेशी आक्रांताओं के खिलाफ भारतीय जन मानस में विद्रोह की ज्वाला प्रज्वलित करने का कार्य किया है।जिस जाति में ईशरदास बारठ, दुरसा आढा, नरहरदास बारठ, जाडा मेहडू, बांकी दास आशिया, सूर्यमल्ल मीसण केशरसिंह बारहठ जैसे प्रभृति कवि हुए जिनकी समकक्षता के लिए वर्माजी की सात पीढियां सात बार जन्म ले, तो भी नहीं कर सकती।
ऐसे बेहुदे व बेहया बयान की जितनी निंदा की जाए शायद कम होगी।जन -जन की आवाज कहीं जाने वाली राजस्थान पत्रिका अगर किसी जाति विशेष की प्रतिष्ठा को ठेस पहुंचाने वाले बयान प्रकाशित करती है और सामाजिक वैमनश्य फैलाने में ऐसे लोगों को प्रश्रय देती है तो घोर निंदनीय है।पत्रिका अपने इस प्रकाशित बयान पर खेद प्रकट नहीं करती है तो इन दोनों समाजों को इसका बहिष्कार करने की दिशा में कदम उठाना चाहिए। Was this information helpful? |