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i agree with you
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THIS COMPLAINT IS ABSOLUTELY WRONG, I AM THE OWNER THIS COMPANY.THIS COMPLAINT WAS DONE BY BUSINESS COMPETITOR AND DEFINITELY I WILL BE TEACH A LESSON HIM
HI..
I AM THE OWNER OF ADVANCE SECURITY SOLUTIONS
SOME BUSINESS COMPETITORS ARE DOING WRONG COMPLAINT AGAINST MY COMPANY.I WANT TO KNOW ABOUT HIM/HER, WHO IS POST THIS WRONG COMPLAINT AND I AM REQUESTING YOU THAT PLEASE REMOVE POST COMPLAINT.I HAVE ALREADY LOADGE A COMPLAINT IN POLICE STATION AGAINST THIS ILLEGAL ACTIVITY AND POLICE INQUIRY GOING ON.
I AM THE OWNER OF ADVANCE SECURITY SOLUTIONS
SOME BUSINESS COMPETITORS ARE DOING WRONG COMPLAINT AGAINST MY COMPANY.I WANT TO KNOW ABOUT HIM/HER, WHO IS POST THIS WRONG COMPLAINT AND I AM REQUESTING YOU THAT PLEASE REMOVE POST COMPLAINT.I HAVE ALREADY LOADGE A COMPLAINT IN POLICE STATION AGAINST THIS ILLEGAL ACTIVITY AND POLICE INQUIRY GOING ON.
what is there to panic my friend.?
its just a personal experience of a customer and i clearly mentioned i didnot buy anything frm you.
infact why me noone would buy, your knowledge in regard to the products is absolute zero and you were trying to fool me.
what would the police do in this? this shows your level of intelligence and you getting hyper.
stay cool n rather than creating hue and cry, start fault finding within you and improvise.
good luck and all the best
its just a personal experience of a customer and i clearly mentioned i didnot buy anything frm you.
infact why me noone would buy, your knowledge in regard to the products is absolute zero and you were trying to fool me.
what would the police do in this? this shows your level of intelligence and you getting hyper.
stay cool n rather than creating hue and cry, start fault finding within you and improvise.
good luck and all the best
who is he?
who is the complainer ?
what is his I.D.?
what is his mobile no ?
how to believe his wrong complaint?
no descriptions are given by complainer, no any other details to furnish for truth
who is the complainer ?
what is his I.D.?
what is his mobile no ?
how to believe his wrong complaint?
no descriptions are given by complainer, no any other details to furnish for truth
sorry...sorry sir i am wrong, i am mentally disturb now days, i am feeling guilty, so i will be removed all complaints
tu mental bhi hai aur chutia bhi.. first learn the basics ... gadhe, gaandu with ur own id .. u confess u are mental and look atr ur pathetic english.. u are good to be a kirana shopkeeper.. or should have been in jail who let u out ???
" खाली हाथ अाए अौर खाली हाथ चले। जो अाज तुम्हारा है, कल अौर किसी का था, परसों किसी अौर का होगा। इसीलिए, जो कुछ भी तू करता है, उसे भगवान के अर्पण करता चल। "
क्यों व्यर्थ की चिंता करते हो? किससे व्यर्थ डरते हो? कौन तुम्हें मार सक्ता है? अात्मा ना पैदा होती है, न मरती है।
जो हुअा, वह अच्छा हुअा, जो हो रहा है, वह अच्छा हो रहा है, जो होगा, वह भी अच्छा ही होगा। तुम भूत का पश्चाताप न करो। भविष्य की चिन्ता न करो। वर्तमान चल रहा है।
तुम्हारा क्या गया, जो तुम रोते हो? तुम क्या लाए थे, जो तुमने खो दिया? तुमने क्या पैदा किया था, जो नाश हो गया? न तुम कुछ लेकर अाए, जो लिया यहीं से लिया। जो दिया, यहीं पर दिया। जो लिया, इसी (भगवान) से लिया। जो दिया, इसी को दिया।
खाली हाथ अाए अौर खाली हाथ चले। जो अाज तुम्हारा है, कल अौर किसी का था, परसों किसी अौर का होगा। तुम इसे अपना समझ कर मग्न हो रहे हो। बस यही प्रसन्नता तुम्हारे दु:खों का कारण है।
परिवर्तन संसार का नियम है। जिसे तुम मृत्यु समझते हो, वही तो जीवन है। एक क्षण में तुम करोड़ों के स्वामी बन जाते हो, दूसरे ही क्षण में तुम दरिद्र हो जाते हो। मेरा-तेरा, छोटा-बड़ा, अपना-पराया, मन से मिटा दो, फिर सब तुम्हारा है, तुम सबके हो।
न यह शरीर तुम्हारा है, न तुम शरीर के हो। यह अग्नि, जल, वायु, पृथ्वी, अाकाश से बना है अौर इसी में मिल जायेगा। परन्तु अात्मा स्थिर है - फिर तुम क्या हो?
तुम अपने अापको भगवान के अर्पित करो। यही सबसे उत्तम सहारा है। जो इसके सहारे को जानता है वह भय, चिन्ता, शोक से सर्वदा मुक्त है।
जो कुछ भी तू करता है, उसे भगवान के अर्पण करता चल। ऐसा करने से सदा जीवन-मुक्त का अानंन्द अनुभव करेगा।
क्यों व्यर्थ की चिंता करते हो? किससे व्यर्थ डरते हो? कौन तुम्हें मार सक्ता है? अात्मा ना पैदा होती है, न मरती है।
जो हुअा, वह अच्छा हुअा, जो हो रहा है, वह अच्छा हो रहा है, जो होगा, वह भी अच्छा ही होगा। तुम भूत का पश्चाताप न करो। भविष्य की चिन्ता न करो। वर्तमान चल रहा है।
तुम्हारा क्या गया, जो तुम रोते हो? तुम क्या लाए थे, जो तुमने खो दिया? तुमने क्या पैदा किया था, जो नाश हो गया? न तुम कुछ लेकर अाए, जो लिया यहीं से लिया। जो दिया, यहीं पर दिया। जो लिया, इसी (भगवान) से लिया। जो दिया, इसी को दिया।
खाली हाथ अाए अौर खाली हाथ चले। जो अाज तुम्हारा है, कल अौर किसी का था, परसों किसी अौर का होगा। तुम इसे अपना समझ कर मग्न हो रहे हो। बस यही प्रसन्नता तुम्हारे दु:खों का कारण है।
परिवर्तन संसार का नियम है। जिसे तुम मृत्यु समझते हो, वही तो जीवन है। एक क्षण में तुम करोड़ों के स्वामी बन जाते हो, दूसरे ही क्षण में तुम दरिद्र हो जाते हो। मेरा-तेरा, छोटा-बड़ा, अपना-पराया, मन से मिटा दो, फिर सब तुम्हारा है, तुम सबके हो।
न यह शरीर तुम्हारा है, न तुम शरीर के हो। यह अग्नि, जल, वायु, पृथ्वी, अाकाश से बना है अौर इसी में मिल जायेगा। परन्तु अात्मा स्थिर है - फिर तुम क्या हो?
तुम अपने अापको भगवान के अर्पित करो। यही सबसे उत्तम सहारा है। जो इसके सहारे को जानता है वह भय, चिन्ता, शोक से सर्वदा मुक्त है।
जो कुछ भी तू करता है, उसे भगवान के अर्पण करता चल। ऐसा करने से सदा जीवन-मुक्त का अानंन्द अनुभव करेगा।
( ज्ञान की महिमा )
श्रेयान्द्रव्यमयाद्यज्ञाज्�...⇄ परन्तप ।
सर्वं कर्माखिलं पार्थ ज्ञाने परिसमाप्यते ॥
भावार्थ : हे परंतप अर्जुन! द्रव्यमय यज्ञ की अपेक्षा ज्ञान यज्ञ अत्यन्त श्रेष्ठ है तथा यावन्मात्र सम्पूर्ण कर्म ज्ञान में समाप्त हो जाते हैं॥33॥
तद्विद्धि प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया ।
उपदेक्ष्यन्ति ते ज्ञानं ज्ञानिनस्तत्वदर्शिनः ॥
भावार्थ : उस ज्ञान को तू तत्वदर्शी ज्ञानियों के पास जाकर समझ, उनको भलीभाँति दण्डवत् प्रणाम करने से, उनकी सेवा करने से और कपट छोड़कर सरलतापूर्वक प्रश्न करने से वे परमात्म तत्व को भलीभाँति जानने वाले ज्ञानी महात्मा तुझे उस तत्वज्ञान का उपदेश करेंगे॥34॥
यज्ज्ञात्वा न पुनर्मोहमेवं यास्यसि पाण्डव ।
येन भुतान्यशेषेण द्रक्ष्यस्यात्मन्यथो मयि ॥
भावार्थ : जिसको जानकर फिर तू इस प्रकार मोह को नहीं प्राप्त होगा तथा हे अर्जुन! जिस ज्ञान द्वारा तू सम्पूर्ण भूतों को निःशेषभाव से पहले अपने में (गीता अध्याय 6 श्लोक 29 में देखना चाहिए।) और पीछे मुझ सच्चिदानन्दघन परमात्मा में देखेगा। (गीता अध्याय 6 श्लोक 30 में देखना चाहिए।)॥35॥
अपि चेदसि पापेभ्यः सर्वेभ्यः पापकृत्तमः ।
सर्वं ज्ञानप्लवेनैव वृजिनं सन्तरिष्यसि ॥
भावार्थ : यदि तू अन्य सब पापियों से भी अधिक पाप करने वाला है, तो भी तू ज्ञान रूप नौका द्वारा निःसंदेह सम्पूर्ण पाप-समुद्र से भलीभाँति तर जाएगा॥36॥
यथैधांसि समिद्धोऽग्निर्भस्मसात्कुरु�...⇄ ।
ज्ञानाग्निः सर्वकर्माणि भस्मसात्कुरुते तथा ॥
भावार्थ : क्योंकि हे अर्जुन! जैसे प्रज्वलित अग्नि ईंधनों को भस्ममय कर देता है, वैसे ही ज्ञानरूप अग्नि सम्पूर्ण कर्मों को भस्ममय कर देता है॥37॥
न हि ज्ञानेन सदृशं पवित्रमिह विद्यते ।
तत्स्वयं योगसंसिद्धः कालेनात्मनि विन्दति ॥
भावार्थ : इस संसार में ज्ञान के समान पवित्र करने वाला निःसंदेह कुछ भी नहीं है। उस ज्ञान को कितने ही काल से कर्मयोग द्वारा शुद्धान्तःकरण हुआ मनुष्य अपने-आप ही आत्मा में पा लेता है॥38॥
श्रद्धावाँल्लभते ज्ञानं तत्परः संयतेन्द्रियः ।
ज्ञानं लब्धवा परां शान्तिमचिरेणाधिगच्छति ॥
भावार्थ : जितेन्द्रिय, साधनपरायण और श्रद्धावान मनुष्य ज्ञान को प्राप्त होता है तथा ज्ञान को प्राप्त होकर वह बिना विलम्ब के- तत्काल ही भगवत्प्राप्तिरूप परम शान्ति को प्राप्त हो जाता है॥39॥
अज्ञश्चश्रद्दधानश्च संशयात्मा विनश्यति ।
नायं लोकोऽस्ति न परो न सुखं संशयात्मनः ॥
भावार्थ : विवेकहीन और श्रद्धारहित संशययुक्त मनुष्य परमार्थ से अवश्य भ्रष्ट हो जाता है। ऐसे संशययुक्त मनुष्य के लिए न यह लोक है, न परलोक है और न सुख ही है॥40॥
योगसन्नयस्तकर्माणं ज्ञानसञ्न्निसंशयम् ।
आत्मवन्तं न कर्माणि निबध्नन्ति धनञ्जय ॥
भावार्थ : हे धनंजय! जिसने कर्मयोग की विधि से समस्त कर्मों का परमात्मा में अर्पण कर दिया है और जिसने विवेक द्वारा समस्त संशयों का नाश कर दिया है, ऐसे वश में किए हुए अन्तःकरण वाले पुरुष को कर्म नहीं बाँधते॥41॥
तस्मादज्ञानसम्भूतं हृत्स्थं ज्ञानासिनात्मनः ।
छित्वैनं संशयं योगमातिष्ठोत्तिष्ठ भारत ॥
भावार्थ : इसलिए हे भरतवंशी अर्जुन! तू हृदय में स्थित इस अज्ञानजनित अपने संशय का विवेकज्ञान रूप तलवार द्वारा छेदन करके समत्वरूप कर्मयोग में स्थित हो जा और युद्ध के लिए खड़ा हो जा॥42॥
ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसंवादे ज्ञानकर्मसंन्यास योगो नाम चतुर्थोऽध्यायः ॥4॥
श्रेयान्द्रव्यमयाद्यज्ञाज्�...⇄ परन्तप ।
सर्वं कर्माखिलं पार्थ ज्ञाने परिसमाप्यते ॥
भावार्थ : हे परंतप अर्जुन! द्रव्यमय यज्ञ की अपेक्षा ज्ञान यज्ञ अत्यन्त श्रेष्ठ है तथा यावन्मात्र सम्पूर्ण कर्म ज्ञान में समाप्त हो जाते हैं॥33॥
तद्विद्धि प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया ।
उपदेक्ष्यन्ति ते ज्ञानं ज्ञानिनस्तत्वदर्शिनः ॥
भावार्थ : उस ज्ञान को तू तत्वदर्शी ज्ञानियों के पास जाकर समझ, उनको भलीभाँति दण्डवत् प्रणाम करने से, उनकी सेवा करने से और कपट छोड़कर सरलतापूर्वक प्रश्न करने से वे परमात्म तत्व को भलीभाँति जानने वाले ज्ञानी महात्मा तुझे उस तत्वज्ञान का उपदेश करेंगे॥34॥
यज्ज्ञात्वा न पुनर्मोहमेवं यास्यसि पाण्डव ।
येन भुतान्यशेषेण द्रक्ष्यस्यात्मन्यथो मयि ॥
भावार्थ : जिसको जानकर फिर तू इस प्रकार मोह को नहीं प्राप्त होगा तथा हे अर्जुन! जिस ज्ञान द्वारा तू सम्पूर्ण भूतों को निःशेषभाव से पहले अपने में (गीता अध्याय 6 श्लोक 29 में देखना चाहिए।) और पीछे मुझ सच्चिदानन्दघन परमात्मा में देखेगा। (गीता अध्याय 6 श्लोक 30 में देखना चाहिए।)॥35॥
अपि चेदसि पापेभ्यः सर्वेभ्यः पापकृत्तमः ।
सर्वं ज्ञानप्लवेनैव वृजिनं सन्तरिष्यसि ॥
भावार्थ : यदि तू अन्य सब पापियों से भी अधिक पाप करने वाला है, तो भी तू ज्ञान रूप नौका द्वारा निःसंदेह सम्पूर्ण पाप-समुद्र से भलीभाँति तर जाएगा॥36॥
यथैधांसि समिद्धोऽग्निर्भस्मसात्कुरु�...⇄ ।
ज्ञानाग्निः सर्वकर्माणि भस्मसात्कुरुते तथा ॥
भावार्थ : क्योंकि हे अर्जुन! जैसे प्रज्वलित अग्नि ईंधनों को भस्ममय कर देता है, वैसे ही ज्ञानरूप अग्नि सम्पूर्ण कर्मों को भस्ममय कर देता है॥37॥
न हि ज्ञानेन सदृशं पवित्रमिह विद्यते ।
तत्स्वयं योगसंसिद्धः कालेनात्मनि विन्दति ॥
भावार्थ : इस संसार में ज्ञान के समान पवित्र करने वाला निःसंदेह कुछ भी नहीं है। उस ज्ञान को कितने ही काल से कर्मयोग द्वारा शुद्धान्तःकरण हुआ मनुष्य अपने-आप ही आत्मा में पा लेता है॥38॥
श्रद्धावाँल्लभते ज्ञानं तत्परः संयतेन्द्रियः ।
ज्ञानं लब्धवा परां शान्तिमचिरेणाधिगच्छति ॥
भावार्थ : जितेन्द्रिय, साधनपरायण और श्रद्धावान मनुष्य ज्ञान को प्राप्त होता है तथा ज्ञान को प्राप्त होकर वह बिना विलम्ब के- तत्काल ही भगवत्प्राप्तिरूप परम शान्ति को प्राप्त हो जाता है॥39॥
अज्ञश्चश्रद्दधानश्च संशयात्मा विनश्यति ।
नायं लोकोऽस्ति न परो न सुखं संशयात्मनः ॥
भावार्थ : विवेकहीन और श्रद्धारहित संशययुक्त मनुष्य परमार्थ से अवश्य भ्रष्ट हो जाता है। ऐसे संशययुक्त मनुष्य के लिए न यह लोक है, न परलोक है और न सुख ही है॥40॥
योगसन्नयस्तकर्माणं ज्ञानसञ्न्निसंशयम् ।
आत्मवन्तं न कर्माणि निबध्नन्ति धनञ्जय ॥
भावार्थ : हे धनंजय! जिसने कर्मयोग की विधि से समस्त कर्मों का परमात्मा में अर्पण कर दिया है और जिसने विवेक द्वारा समस्त संशयों का नाश कर दिया है, ऐसे वश में किए हुए अन्तःकरण वाले पुरुष को कर्म नहीं बाँधते॥41॥
तस्मादज्ञानसम्भूतं हृत्स्थं ज्ञानासिनात्मनः ।
छित्वैनं संशयं योगमातिष्ठोत्तिष्ठ भारत ॥
भावार्थ : इसलिए हे भरतवंशी अर्जुन! तू हृदय में स्थित इस अज्ञानजनित अपने संशय का विवेकज्ञान रूप तलवार द्वारा छेदन करके समत्वरूप कर्मयोग में स्थित हो जा और युद्ध के लिए खड़ा हो जा॥42॥
ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसंवादे ज्ञानकर्मसंन्यास योगो नाम चतुर्थोऽध्यायः ॥4॥