आदरणीय संपादक महोदय;
दैनिक जागरण
मै डा० अमरजीत कुमार आज के दैनिक जागरण में प्रथम पृष्ठ पर बड़े अक्षरों में प्रकाशित रिपोर्ट "शहरी नक्सलीओं को नहीं मिली राहत" पर आपका ध्यान दिलाना चाहता हूँ. मेरे लिए शहरी नक्सल का कांसेप्ट सरकार द्वारा गढ़ा गया कांसेप्ट है. जिसका प्रयोग सताएं अपने विरोधिओं को सताने के लिए करतीं आई हैं. इस रिपोर्ट के शीर्षक पर मै अपनी सख्त आपति जाहिर करता हूँ. आपने जिनपर आरोप लगे उन्हें न्यायलय से पूर्व ही शहरी नक्सली घोषित कर दिया. यह अधिकार आपको किसने दिया. आप कुछ भी लिखेंगे. उस रिपोर्ट को मैंने पूरा पढ़ा है. इसमें सरकार कि भक्ति और चलाकी का मेल-जोल स्पष्ट नजर आता है. रिपोर्ट में शीर्षक जहाँ उन नजरबंद सामाजिक कार्यकर्ताओं को शहरी नक्सली घोषित करता है वहीँ बाद में उन्हें "कथित शहरी नक्सली" कहा गया है . इसे विशुद्ध चालाकी कहते हैं. आप पाठकों को क्या परोस रहे हैं ? यह समझाने कि आवश्यकता नहीं है कि प्रेस लोकतंत्र का स्तम्भ होता है और सरकार के आलोचक की भूमिका उसे निभानी चाहिए. आज के दौर में ये नीति नेपथ्य में चली गई है. आज का प्रेस चाटुकारिता के दौर से गुजर रहा है. फिर भी इस घोर नैराश्य में दो या तिन प्रकाश पुंज नजर आते हैं. इसमें आपका नाम तो कदापि नहीं है. इस रिपोर्ट को पढ़कर ऐसा लगा कि आप किसी पूर्वाग्रह से ग्रसित हैं. एक विद्यार्थी और एक नियमित पाठक के रूप में जो चोट पहुँचीं है वो अकल्पनीय है. क्या इस देश में दलितों का कोई अधिकार नहीं? यदि उनकी पीड़ा को आभिव्यक्त करने का साहस कोई करे तो उसे शहरी नक्सली करार दिया जायेगा? ऐसे में मुनव्वर राणा का शेर अत्यधिक प्रासंगिक लगता है:-
बुलंदी देर तक किस सख्स के हिस्से में रहती है
बड़ी ऊँची ईमारत हर घड़ी खतरे में रहती है ...
धन्यवाद गोदी मिडिया का मजबूत स्तम्भ बनने के लिए Was this information helpful? |
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